देशप्रेमी सरदार अली खां की हवेली बनी उनकी आखिरी आरामगाह

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देशप्रेमी सरदार अली खां की हवेली बनी उनकी आखिरी आरामगाह

By सैयद फरहान अहमद

गोरखपुर। सन् 1857 की जंगे आज़ादी की पहली लड़ाई हम भूल नहीं सकते। देश के लिए जान कुर्बान करने वालों के साथ यह अन्याय कई सौ सालों से चला आ रहा हैं। ऐसी ही एक शख्सियत हैं सरदार अली ख़ां। जिन्हें हर खासो आम जानता जरूर है कि वह जंगे आज़ादी के योद्धा थे। लेकिन वह वाकया अवाम के जेहन में नहीं है। जिसकी वजह से उन्हें और अहले खानदान को शहादत देनी पड़ी। पहली जंगे आज़ादी के दीवाने की मजार आज भी मौजूद है। घरवाले भी है। मजार पर जाकर और घरवालों से बात करके देखिए आपका दिल पिघल जाएगा। जिस सम्मान का यह घराना हकदार था, उसे मिला नहीं। नखास स्थित कोतवाली से हर कोई वाकिफ है। यह कभी मुअज्जम अली ख़ां की हवेली हुआ करती थी। आज उनके खानदान वालों की आख़िरी आरामगाह बन चुकी है। सरदार अली ख़ां उनके भाई रमजान अली ख़ां व उनके परिवार वालों की रूहें वहां पर मौजूद हैं। कभी आइए तो खुद बा खुद अहसास हो जाएगा। शहीद का दर्जा भी न मिल सका। यहां जो मजार आप देख रहे हैं। यह अंग्रेजों ने नहीं बनवाई। बल्कि देश प्रेमी जनता ने बनवाई। अंग्रेज तो उन्हें बागी मान रहे थे। सरकारी दस्तावेजों में यही दर्ज है।

सरदार अली ख़ां की अमानतदारी मशहूर थी। लखनऊ की बेगम हज़रत महल ने अपनी दो बेटियों को अंग्रेजों से बचाने के लिए सरदार अली ख़ां के पास गोरखपुर भेजा था। उनकी एक बेटी की मौत तपेदिक से हो गई थी। उनकी मजार कृष्णा टाॅकीज के पास बनी है जो गुमनामी में खो गई है। जबकि दूसरी बेटी ने राप्ती में छलांग लगा दी थी। यह कोई कम फख्र की बात नहीं थी। बेगम हजरत महल अवध की मल्लिका थी। पहली जंगे आज़ादी में उनका अहम किरदार थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि सरदार अली ख़ां उनकी बेटियों की अच्छी तरह हिफाज़त कर सकेंगे। जो उन्होंने की भी।

खैर! मुअज्जम अली ख़ां के घर में किसे पता था कि यह बच्चा बड़ा होकर जंगे आज़ादी का सिपाही बनेगा। अच्छी तालीम व तरबियत मिली। गोरखपुर के रहने वाले सरदार अली ख़ां पुत्र मुअज्जम अली ख़ां अवध कोर्ट के रिसालादार यानी सैनिक कमांडर और बड़े जमींदार थे। जब 1857 को जंगे आज़ादी की ज्वाला भड़की तो गोरखपुर ने भी लब्बैक कहा। मोहम्मद हसन व श्रीनेत राजाओं के नेतृत्व में सरदार अली ख़ां ने जंग लड़ी। सरदार अली ख़ां के नेतृत्व में नाजिम मोहम्मद हसन का साथ देने वाले अधिकांश मुसलमान मुहल्ला शाहपुर, बशारतपुर, मोगलहां और चरगांवा के थे। सभी मध्यम वर्गीय कामगार परन्तु देशप्रेम से ओत प्रोत थे। कुछ गोली का शिकार हुए। अधिंकाश बचे हुए सपरिवार पकड़ कर फीजी भेज दिए गए। शाहपुर व बशारतपुर में ईसाईयों को बसा दिया गया। शहीद सरदार अली ख़ां, उनके भाई रमजान अली ख़ां व खानदान वालों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। हवेली को कोतवाती में तब्दील कर दिया गया। सरदार अली की बेटी मासूमा बीबी अपने भाई गौहर अली ख़ां भतीजे कासिम अली ख़ां को लेकर अंग्रेजों की नज़र बचा कर भाग निकली थीं। उसी से परिवार आगे बढ़ा और सालों तक गुमनामी में काटे। अब भी काट रहे है।

इतिहासकारों ने कम से कम शहीद सरदार अली ख़ां को तो अपने इतिहास लेखन में अपने अवराक की जीनत बनाया। नहीं तो इनका भी यही हस्र होता जैसा मौलाना आजाद सुभानी व सरफराज अली का हुआ। इन दोनों शख्सियत को तो कोई जानता ही नहीं है, लेकिन सरदार अली से सब वाक़िफ है। सरदार अली की शहादत का यह किस्सा पीएन चोपड़ा, विजयी बी. सिन्हा और पीसी राय ने संयुक्त रूप से लिखी अपनी पुस्तक 'हूज इज हू' में दर्ज किया है। यह पुस्तक भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने 15 अगस्त 1973 को प्रकाशित की थी।

गोरखपुर कोतवाली परिसर में आज भी सरदार अली ख़ां की मजार है। इस मजार के पास कई मजारें है जो उनके परिजनों की है। 1857 की क्रांति के बाद गोरखपुर और आस-पास की छोटी बड़ी 87 रियासतों, ताल्लुकदारों और जमींदारों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बगावत कर दी थी। इस जंग में गोरखपुर के सरदार अली ख़ां ने मोहम्मद हसन के कयादत में जंग लड़ी। सरदार अली ख़ां और उनके भाई रमजान अली ख़ां ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। यह उन्हीं का प्रयास था कि 10 जून 1857 को गोरखपुर और आस-पास के क्षेत्र अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा लिया गया था। यह आजादी करीब 6 माह तक कायम रही, बाद में अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चाल से 16 जनवरी 1858 को गोरखपुर को अपने कब्जे में ले लिया।

न तो सरकारी महकमें ने और ना ही अवाम ने उनको वह सम्मान दिया जो उन्हें मिलता है। सिवाय हर साल की 15 अप्रैल को चंद घर वालें चादर व फूल लेकर हाजिर होते हैं।

  • Syed Farhan Ahmad

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