गोरखपुर के मौलाना आज़ाद सुब्हानी को भूल गया हिंदुस्तान

गोरखपुर के मौलाना आज़ाद सुब्हानी को भूल गया हिंदुस्तान
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गोरखपुर के मौलाना आज़ाद सुब्हानी को भूल गया हिंदुस्तान
Source : Rekhta

गोरखपुर के मौलाना आज़ाद सुब्हानी को भूल गया हिंदुस्तान

जंगे आजादी में हिन्दू राजा व मौलाना की अनोखी की दास्तान

जंगे आज़ादी के लिए यूरोप से लगायत पश्चिमी देशों की यात्रा

राष्ट्रअध्यक्षों से मिलकर अंग्रेजों पर दबाव बनाने कि इल्तिजा

कच्ची बाग में कब्र है लेकिन गुमनाम

सैयद फरहान अहमद
"द आवाज़"

गोरखपुर। मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद से तो सभी वाकिफ हैं, लेकिन गोरखपुर के मौलाना आज़ाद सुब्हानी से कम लोग वाकिफ हैं। आइए जानते हैं एक हिन्दू राजा व मौलाना सुभानी की अनोखी दास्तान। जिसने आज़ादी में अहम किरदार निभाया। जिन्होंने बिना अस्त्र शस्त्र के देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ी और फतह पाई।

देश व विदेश में व्याप्क जनसम्पर्क किया। सूफीयाना शैली से भाईचारगी का पैग़ाम दिया। अफसोस गांधी जी, बल्लभ भाई पटेल, सरोजनी नायडू, जवाहर लाल नेहरू, अब्दुल कलाम आजाद को तो हिंदुस्तान ने याद रखा। आज़ादी के इस अज़ीम मतवाले के कारनामे का भूला दिया। हालांकि भारत सरकार ने मौलाना को मुस्लिम स्वतंत्र संग्राम सेनानियों की सूची में 31 नंबर पर रखा है।

वहीं ख़िलाफत आंदोलन में आपने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। यह गोरखपुर वालों के लिए फख्र की बात है। मौलाना आजाद सुब्हानी को इमामें हिंद होने का सम्मान मिला। मौलाना सुब्हानी को अब्दुल कलाम की अनुपस्थित में ईदैन की नमाज़ पढ़ाने के लिए कलकत्ता की जामा मस्जिद में मनोनित किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मौलाना सुब्हानी की अस्त्र-शस्त्र विहीन युद्ध शैली अपूर्व, अद्वितीय एवं अनिर्वचनीय रही। सफल भी। इस युद्व शैली ने सम्पूर्ण विश्व को आंदोलित कर दिया। मौलाना की प्रकाशमय मधुर जीवन शैली से अंग्रेज भी सम्मोहित होते रहे। मौलाना को ’मोपलो’ से सम्बंघित कमीशन का चेयरमैन भी बनाया गया। मोपलो से संबंधित मौलाना की रिपोर्ट को अंग्रेज सरकार ने काफी सम्मान दिया। अल्प आयु में मौलाना आजादी के मतवाले, मधुरवक्ता, प्रबुद्ध लेखक, साहित्यकार बन गए। उनका सूफियाना जीवन सबके लिए आकर्षण बन गया।

गोरखपुर के मोहल्ला तिवारीपुर में उन्होंने लौकिक पारलौकिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान प्रसार का केंद्र बनाया। जनसम्पर्क को हथियार बनाया। तीन बार यूरोप, इस्लामिक मुल्कों, अमेरिका, ब्रिटेन की यात्रा कर व्याप्क जनसम्पर्क किया। देश की आजादी के लिए प्रेरित किया। लोगों का दिल जीता। देश के बटवारें से दुखी भी हुए।‌ बहु भाषा ज्ञान, सभी धर्मों गहरी पैठ और आध्यात्मिक सूफियाना जीवन शैली से मौलान सुब्हानी को पग-पग पर समर्थन और सहयोग मिला।

श्रीनेत राजवंशी रवि प्रताप के सर्वकोणीय संरक्षण से ही मौलाना की दीर्घकालिक लम्बी-लम्बी यात्राएं सम्भव हो सकी। तिवारीपुर के खादिम हुसैन (अफ़सर) से आपका सगे भाई की तरह सम्बंध था। आपका ननिहाल निज़ामपुर में मौजूद है। उसके बावजूद खादिम हुसैन से अलग ही रिश्ता था। हाजी खादिम हुसैन ने उनको रहने के लिए मकान इनायत करवाया। जिसमें वह काफी समय तक रहे। उसके बाद मौलाना के पुत्र मौलाना हसन सुब्हानी वहां रहते रहे। मदरसा भी चलाया। वहीं पास में खादिम हुसैन द्वारा बनवाई गई मस्जिद में आप के द्वारा लिखा खुतबा हर जुमा को पढा जाता था। मौलाना की लड़की जामिला खातून की शादी निजामपुर के रहने वाले मोइन अब्बास से हुई।

मरहूम खादिम हुसैन ने आपके साथ जंगे आज़ादी में अहम किरदार निभाया। अपने निवास स्थान तिवारीपुर में ’’दायरे रब्बानी’’, और ’’जामए रब्बानी’’ का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया। मौलाना स्वयं रब्बानी आंदोलन के जनक भी रहे। यहीं से मौलाना की प्रथम पत्रिका ’’रूहानियत’’ का प्रकाशन भी हुआ। दूसरी पत्रिका दावत का प्रकाशन किया। तीसरी पत्रिका रब्बानियत का प्रकाशन भी यहीं से हुआ। मजलिस रब्बानियत की पन्द्रह रोजा पत्रिका ’’दावत’’ का प्रकाशन हाजी खादिम हुसैन ’’दावत प्रेस’’ गोरखपुर से करते रहे। मौलाना की मधुर जीवन शैली सबको सम्मोहित करती रही। मजदूर समर्थित मजदूर पाटी की विजय एवं लोकप्रिय एटली को प्रधानमंत्री बना मौलाना के दीर्घ जन सम्पर्क का प्रतिफल कहा जा सकता है। भारत ही नहीं विश्व के अधिकांश देशों को गुलामी के पंजे से छुटकारा मिल गया।

मौलाना सुब्हानी एक धर्मनिष्ठ मुसलमान मुतुर्जा हुसैन के पुत्र थे। उनका जन्म सन् 1882 में सिकन्दरपुर कस्बा (बलिया) में हुआ था। ’’गोरखपुर का इतिहास आदि से आज तक’’ पुस्तक में अब्दुर्रहमान गेहुंआ सागरी लिखते हैं कि लार्ड कर्जन हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्र में विष घोलने का प्रयास करता रहा। गोरखभूमि की साध्वी संस्कृति की रखवाली यहां के प्रबुद्ध जन करते रहे। जिसका माध्यम बना सतत् जनसम्पर्क। जिसके ध्वजवाहक बने मौलाना आजाद सुब्हानी। तत्कालीन श्रीनेत राजा सत्तासी विजय प्रताप सिंह (1879-1894) की भूमिका अप्रतिम और अपूर्व-चिरस्मरणीय है। राजा अस्वस्थ होकर मृत्यु शैया पर पड़े थे। राजा का हालचाल लेने वालों में बलिया के सिकन्दरपुर तत्कालीन गोरखुपर से आने वाले हजरत शेख मोहम्मद मुर्तुजा का नाम काबिलेगौर है। जो अपने प्रतिभा सम्पन्न बालक अब्दुल कादिर (मौलाना आजाद सुब्हानी) का आशीषार्थ साथ लाए थे। मृत्यु शैया पर पड़े राजन का आर्शीवाद ऐसा मिला की वहीं बालक अब्दुल कादिर आगे चलकर मौलाना आजाद सुब्हानी के नाम से मशायखों में सम्मिलित हो गया। मृत्यु शैया पर पड़े राजा विजय ने मुर्तुजा हुसैन को अपनी सदाशयता के प्रेम पास में पकड़ लिया। वह आजीवन सत्तासी राज के अविभाज्य अंग बन गए। राजकुमार रविप्रताप नारायण सिंह के रख-रखाव, देखभाल का दायित्व प्राप्त हुआ।

अब्दुर्रहमान लिखते है कि जौनपुर के नवाब अब्दुल मजीद के संरक्षण में उन्हीं के मदरसें में शिक्षा प्रारम्भ हुई। मौलाना फज्ले हक खैराबादी, सैयद मौलाना हिदायतुल्लाह रामपुरी, तैयब का नाम आप के उस्तादों में अहम है। मौलाना सुब्हानी आदतन मानवता प्रेमी, आज़ादी पसंद मुसलमान थे। उनकी अरबी, फारसी, उर्दू सहित अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत पर मजबूत पकड़ थी। मौलाना के मन आंगन में स्वतंत्रता के भाव सत्त अंगड़ाई लेते रहे। प्रथम विश्व युद्ध की ज्वाला धधकने लगी। मौलाना के युवा जीवन का अभी प्रथम पहर था। इस युद्ध में गोरख भूमिवासियों ने ब्रिटेन के साथ सम्मिलित होकर अपनी अग्रणीय भूमिका स्थापित की, लेकिन अंग्रेजों ने यहां के बाशिंदों से जो वादा किया वह पूरा नहीं किया। मौलाना सुभानी को इससे काफी कष्ट हुआ। वह अपनी धर्मनिष्ठ सूफियाना शैली में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करते रहे। इस सम्बंध में आप वर्मा भी गए इस यात्रा में पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन भी मौलाना के सहचर रहे। 4 फरवरी 1923 को चौरी चौरा की घटना ने मौलाना को झकझौंर दिया। जनपद के सभी हिन्दूओं मुसलमानों को एकत्र किया गया। इस मौके पर मौलाना ने कहा कि ’’ स्वतंत्रता प्राप्त करने की महाप्रक्रिया के प्रथम पर्व का यह प्रथम अध्याय का प्राथमिक अंश है अभी बहुत कुछ शेष है। इस घटन को आजादी के इतिहास की प्रथम पंक्तियों में स्थान मिलेगा। हमें सभी क्रांतिकारियों पर गर्व है। इसके बाद गुप्त समितियां गठित हुई। सबने जी खोलकर प्रभावितों का खूब सहयोग किया।

मौलान सुब्हानी भ्रमण करते रहे। इस बीच कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुई मसलन काकोरी काण्ड, प्रथम गोल मेज सम्मेलन आदि। आजादी की खातिर जनचेतना जाग्रत करने का प्रयास जारी रहा। जब गोरखपुर आते तो अति अल्प विश्राम तिवारीपुर में करते। फिर जनसम्पर्क के लिए निकल पड़ते। रात्रि विश्राम तिवारीपुर, तिपरापुर, इलाहीबाग, निजामपुर की किसी मस्जिद में ही करते।

श्रीनेत सत्तासी राजा रवि प्रताप नारायण के आग्रह पर उनकी दूसरी महत्वपूर्ण यात्रा सन् 1936 में शुरू हुई। इस दीर्घकालिक यात्रा में आपने अफगानिस्तान, इराक, ईरान, और बहुत से यूरोपीय देशों को जागृत करते हुए मक्का शरीफ और मदीन शरीफ पहुंच कर देश हित रो-रो कर प्रार्थनाएं की। दुआ कुबूल हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया। भारत ने इंग्लैण्ड का साथ दिया। लोकतंत्र के नाम पर गोरखपुर के असंख्य योद्धा सम्मिलित हुए। इस युद्ध से भारतीयों के अधिकारों का विस्तार हुआ। चीन, आस्ट्रेलिया, अमेरिका ने ब्रिटेन पर भारत को स्वशासन देने के लिए दबाव डाला। इसके बाद 1942 में गांधी जी ने करो या मरो का नारा दिया। 1945 में शिमला सम्मलेन हुआ। जो असफल रहा। 1946 में राजा सत्तासी रवि प्रताप ने देश में बढ़ते हुए अलगाव वाद एवं साम्प्रदायिकता के भाव से अति आहत होकर मौलाना सुब्हानी को तीसरा सफर करने का आग्रह किया। यह सफर यूरोप, अमेरिका और इंग्लैण्ड तक केन्द्रित रहा। इस यात्रा में मौलाना सुब्हानी ने सम्बन्धित राष्ट्रों के राष्ट्र नायकों से तो सम्पर्क किया ही, साथ ही अति विशिष्टता के साथ जनसम्पर्क भी किया। मौलाना की पूर्व यात्राओं ने ही सबको जागृत एवं सम्मोहित कर दिया था। 1946 में मौलाना आजाद सुब्हानी ब्रिटेन मं पहुंचे तो उन्हें जन-जन का सम्मान व समर्थन प्राप्त हुआ। ब्रिटेन का जन मानस साम्राज्य वाद का विरोधी बन चुका था। इंग्लैण्ड में नया निर्वाचन हुआ जिससें अति उदारवादी मजदूर दल की विजय हुई। एटली प्रधानमंत्री बना। 15 अगस्त 1947 को आजादी तो मिल गयी लेकिन देश खण्डित हो गया। मौलाना सुब्हानी देश के बटंवारे से बहुत आहत हुए। महीनों लगातार रोते रहे। गोरखपुर का सम्पूर्ण जनमानस देश के बंटवारे के विरोध में रहा। मौलाना सुब्हानी ने राष्ट्रवादी हिन्दू-मुस्लिम शक्तियों को संगठित एवं संघनित करने का अथक प्रयास किया था परंतु सत्ता लोलुप नेताओं के सामने राष्ट्रवादियों को झुकना पड़ा। विभाजन मौलाना आजाद के लिए अजीर्ण असह्य रोग बन गया। मौलाना सुब्हानी अस्वस्थ होन के बावजूद विश्राम को अपराध समझते थे। 1947-1957 तक खण्डित भारत वर्ष का भ्रमण करते, प्रेम और भाईचारा का संदेश देेते रहे। सन् 1957 ई. में इस अद्भुत सूफी संत स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौलाना आजाद सुब्हानी की जीवन यात्रा का अंतिम वर्ष रहा। कच्ची बाग तिवारीपुर के आवामी कब्रिस्तान में मौलाना चिर विश्राम रत हो गये। मौलाना का अंतिम शब्द फिक्र करो । मौलान सुब्हानी के अब्बासी परिजन आज भी फ्रिक और जिक्र के माध्यम से सतत् लौकिक-पारलौकिक शिक्षा, सदाशयता एवं भाईचारा के प्रचार-प्रसार में अग्रसर हैं। गौरवमयी, उदारवादी शीतल बयार जो सर्वधर्म होकर श्रीनेत सत्तासी राजा रवि प्रताप के सुसुप्त गुप्त सरंक्षण में चली, उसने भारत ही नहीं सारे विश्व साम्राज्यवाद के बड़े-बड़े शक्ति सम्पन्न किलों को धराशायी कर दिया। सन् 1964 में श्रीनेत राजा रवि प्रताप नारायण सिंह भी अनंत में विलीन हो गये। राजा ने अपनी आखिरी सांस इमिलिय मध्य प्रदेश में ली। मौलाना सुब्हानी व राजा रवि प्रताप की शख्सिय उम्दा थी। जिन्हें इतिहास के अवराक में जगह न मिलना अन्याय है।

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