सैयद फरहान अहमद
गोरखपुर। 1857 की पहली जंगे आज़ादी में मुसलमानों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। अपनी अज़ीम कुर्बानिया पेश की। गोरखपुर की सरजमीं भी इससे खाली नहीं है। इसी सरजमीं पर शाह इनायत अली, सरफराज अली, मोहम्मद हसन, सरदार अली सहित तमाम जानिसारों ने वतन की आबरु की हिफाजत के लिए अपना सबकुछ कर्बान कर दिया।
बसंतपुर स्थित मोती जेल उन अज़ीम वतन के रखवालों की दास्तां अपने दामन में छुपाए हुए है। यहीं पर मौजूद है खूनी कुंआ, पाकड़ का पेड़। जिसमेें सैकड़ों देशभक्तों को फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया।
राजा शाह इनायत अली शाहपुर इस्टेट के राजा थे। बात 1857 की है। आजमगढ़ के अतरौलिया से 11 अंग्रेज अफसर गोरखपुर की सीमा में आना चाहते थे। कमांडर एलिस ने सरयू नदी पार कराने के लिए शाह को संदेशा भेजवाया और नाव उपलब्ध करने को कहा। शाह ने एक नाविक को अंग्रेज अफसरों को ले आने के लिए भेजा। उन्होंने नाविक को नदी के बीचो बीच पहुंचने पर नाव डुबाने का निर्देश दिया। नाविक ने वैसा ही किया। 11 अफसरों को नदी में डूबा कर मौत हो गई। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने शाह को 1875 में इस्लामी तारीख के मुताबिक 23 रजब को मोती जेल में फांसी दे दी। शाह के शव को उनके पूर्वज अब्दुल अजीज शाह की मजार के बगल में दफ़नाया गया। स्वतंत्रता सेनानी शाह इनायत अली ने सन् 1857 के गदर में अंग्रेजों की फरमाबरदारी को कुबूल करने से इंकार कर दिया था।
डाक्टर दरख्शां ताजवर ने बताया कि सैयद अहमद अली शाह द्वारा लिखित किताब कशफुल बगावत में पेज 13 पर 1857 के क्रांतिकारियों का जिक्र मिलता है जिसमें शाह इनायत अली शाह का भी नाम मौजूद है। उन्होंने बताया कि इस किताब में कई राजाओं ने अंग्रेजों से जंग के लिए फौज तैयार करने में मदद की थी। उसमें शाह इनायत अली भी थे। उन्होंने बताया कि तारीख-ए-जंगे आजादी हिन्द 1857 में भी राजा इनायत अली के बारे में मुख्तसर तारीख मिलती है।
सामाजिक कार्यकर्ता डा. पीके लाहिड़ी ने बताया था कि राजा शाह इनायत अली बहुत सूझबूझ से अंग्रेजी सैनिकों से भरी नाव को सरयू नदी में डूबो दिया जिसके बाद उन्हें आरोपी करार देते हुये मोती जेल में फांसी दे दी गई। उन्होंने बताया कि मोती जेल कभी सतासी के राजा बसंत सिंह का महल था। जिसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1802 में तोप से उड़ा दिया था। उसके बाद अंग्रेजों ने इस जगह को जंगे आजादी व अन्य कैदियों को रखा जाता रहा। अंग्रेजे यहां पर जंगे आजादी व अन्य कैदियों को फांसियां दिया करते थे। अंग्रेजों ने 1825 में जिला चिकित्सालय के नजदीक लाॅकआप बनवाया। 1893 में जिला कारगार का वजूद अंग्रेजों ने किया। यह जेल क्रांतिकारियों के देश प्रेम के जज्बे से लबरेज है। इसे राष्ट्रीय धरोहर के तौर पर मान्यता देकर सरंक्षित किए जाने की जरूरत हैं।
उन्होंने बताया कि इतिहासकार डा. दानपाल सिंह ने श्रीनेत राजवंश (सतासीराज) के प्रथम खण्ड में इनायत अली शाह के बारे में हल्का सा जिक्र है। हालांकि पुरानी जेल या डोमखाना के नाम से इस जेल का वजूद खस्ताहाली की अंतिम दहलीज तक पहुंच चुका है।
राजा शाह इनायत के बारे में जानकारी देते हुये वहीं के निवासी सैयद मन्ने ने बताया कि दास्ता के बेडियों से जकड़ी मातृभूमि को फड़फड़ाते देख शाहपुर इस्टेट के जागीरदार शाह इनायत अली विचलित हुए और उसे तोड़ देने के लिए उतारु हो गए। उसी समय बाबू कुॅवर सिंह नें अग्रेंजों की कुचलने का पैग़ाम भेजते हुए शाह इनायत अली को एक पत्र भेजा कि ये जंगे आज़ादी के सिपाही हम अंग्रेजों को कुचलते हुए आजमगढ़ के अतरौलिया कस्बे में अपना डेरा डाले हुए हैं। अब हमें गोरखपुर पहुचनें के लिए इस्टेट में बह रही सरयू को पार करना है‘ जिसके लिए अब नाव की व्यवस्था करें। अग्रेंजों को नाव से इस पर उतरने से रोका जाए। शाह इनायत अली ने बाबू कुॅवर सिंह की भरपूर मदद की।
उन्होंने बताया जंगे आज़ादी के रणबाकुरों की नजर शाहपुर इस्टेट के पास स्थित धुरियापार के नील कोठी के अंग्रेज मालिक के ऊपर गड़ गई। क्योंकि नील फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरो के साथ वह अमानवीय व्यवहार करता था। इससे स्वतंत्रता सेनानियों में जबरदस्त आक्रोश था। एक रात स्वतंत्रता के लड़ाकुओं ने नील कोठी पर धावा बोल दिया। मालिक तो अपनी जान बचाकर भाग गया परन्तु उसका परिवार कोठी में ही छूट गया। नील कोठी के मालिक के परिवार को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी के लिए अंग्रेजों ने शाह इनायत अली से कहा। इनायत अली ने जिम्मेदारी लेने से साफ इंकार कर दिया था। परिणम स्वरूप नील कोठी के मलिक के पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया गया। इस घटना के बाद अंग्रेज कलेक्टर आग बबूला हो गया। शाह इनायत अली को नाफरमानी और साजिश के तहत गिरफ्तार कर फांसी पर लटका दिया गया।
उपेक्षित है राजा इनायत अली शाह का मकबरा व परिवार के लोग
बेलघाट विकास खण्ड के शाहपुर गांव में शाह इनायत अली के शव को उनके पूर्वज सूफी संत हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक हजरत अब्दुल अजीज शाह के मकबरे के अहाते में दफना दिया गया। जो खुले आसमान के नीचे 157 वर्षो से उपेक्षित पड़ा हुआ है। अंग्रेजों ने उनके गस्टेट को नीलाम कर दिया। जिसे बारह आने में जानकी कुंवारी ने नीलाम लिया। एक आना शिवराज चौधरी मीरपुर तथा तीन आना में त्रिवेणी लाल शाहपुर ने लिया। मात्र बावन बीघे जमीन उनके परिवार को गुजारे के लिए ग्राम बेलांव में अंग्रेजों द्वारा दी गई। शाह इनायत अली के एक मात्र वारिस तारा शाह और तारा शाह के भी एकमात्र वारिस गुलजार शाह जिनका ससुराल कोट आजमगढ में है, वहीं जाकर बस गए और पुलिस विभाग में नौकरी करने लगे। उनके एक मात्र पुत्र अनवर शाह जो इस समय आजमगढ में मुफलिसी की जिन्दगी गुजार रहें हैं।
वहीं शाह इनायत अली की मजार पर हिन्दू-मुस्लिम जनता प्रत्येक गुरुवार को उनकें सम्मान में गाजा बाजा के साथ सिरनी मलीदा चढाने आती है। दूल्हा उनके चौखट पर हाजिरी देकर अपनें गंतव्य को जाता है। फिर भी हालत जीर्णशीर्ण है। हालांकि पुरातत्व विभाग से लेकर सरकारों के मंत्रियों नें इसे स्मारक और पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करके मजार की सुरक्षा हेतु रिंग बांध बनवाने की घोषणा की, किन्तु हालत आज भी जस की तस बने हुए हैं।
