गोरखपुर के गुमनाम जफ़र मौलवी सरफराज अली

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सैयद फरहान अहमद

-न हुआ नसीब वतन उन्हें…..न कहीं निशाने मजार है

-1857 की जंगे आज़ादी की अज़ीम शख्सियत मौलवी सरफराज अली की दास्तां

-इतिहास के पन्नों में नहीं मिली इस अज़ीम कुर्बानी को जगह

गोरखपुर।

न दबाया जेरे जमीं उन्हें
न दिया किसी ने कफ़न उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें
न कहीं निशाने मजार है

बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का यह शेर आज़ादी के दीवाने मौलवी सरफराज अली पर वाज़े बैठता है। शहर-ए-गोरखपुर की मिट्टी में 1857 की जंगे आजादी के सैकड़ों ऐसी दास्तानें दफ़न हैं जिन्हें लोग जानते नहीं। एक ऐसी ही दास्तान है क्रांतिकारी मौलवी सरफराज अली की जिन्होंने अंग्रेजी सल्तनत के छक्के छुड़ा दिये थे। अंग्रेज सरफराज को कभी पकड़ न सके। उनसे जुड़े लोगों पर हजारों जुल्म ढाये। इससे भी जी न भरा तो सैकड़ों को फांसी पर चढ़ा दिया। बे कफ़न उन्हें दफ़ना दिया गया। आज भी उन शहीदों की रुहें मौजूद हैं।

देशप्रेमी मौलवी सरफराज अली की वंशज डा. दरख्शां ताजवर ने उनके ज़िंदगी के बारे में बताया कि सौदागार मोहल्ले के हुसैन बख़्श के पूर्वज अकबर की सेना में ऊंचे पद पर थे। हुसैन बख़्श के लड़के सरफराज अली के दिल में अपने वतन के प्रति बेहद मुहब्बत थीं। डा. ताजवर ने बताया कि जब हिंदुस्तान की 1857 की पहली जंगे आजादी शुरू हुई तो सरफराज भी इसमें कूद पड़े। उन्होंने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ दी। अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिये। उन्होंने देशवासियों को जंगे आजादी में लड़ने का आह्वान किया। देश की आजादी लिए शाहजहांपुर में लोगों को इक्ट्ठा करने के बाद बरेली जा पहुंचे। जहां सरफराज क्रांतिकारी बख्त ख़ां के सम्पर्क में आएं और अपने साथियों के साथ दिल्ली पहुंचकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी। दिल्ली में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ क्रांति को तीव्रता प्रदान करने के लिए बख्त ख़ां ने फतवा भी जारी किया जिसमें सरफराज अली के भी हस्ताक्षर थे। दिल्ली में हार के बाद सरफराज अंग्रेजों को चकमा देकर लखनऊ आ गए। यहां उन्होंने बेगम हजरत महल के साथ लड़ाई में भाग लिया। मगर अपने कुछ लोगों के गद्दारी करने से अंग्रेजों को लगातार जीत मिल रही थी। अंग्रेज सरफराज को पकड़ कर मौत की सजा देना चाहते थे। मगर गोरखपुर का यह क्रांतिकारी हर वक्त अंग्रेजों को चकमा देता रहा। अंत में जब लगभग पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत हो गई तो भी सरफराज ने हार नहीं मानी और नेपाल में शरण लेकर वहीं से रणनीति बनाने लगे। आखिर सरफराज की मौत भी नेपाल में हुई और उन्हें काठमांडू की जामा मस्जिद के ही एक हिस्से में दफ़न कर दिया गया। हिंदुस्तान के इस सपूत की आखरी आरामगाह पड़ोसी मुल्क नेपाल में है। क्रांतिकारी सरफराज से ताल्लुक रखने वालों पर अंग्रेजों ने जमकर कहर बरपाया।
क्रांतिकारी सरफराज से अंग्रेज इस क़दर परेशान थे कि वह हर हालत में उसे मौत की सज़ा देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने हर हथकंडे अपना लिए। मगर सरफराज अंग्रेजी हुकूमत के हाथ नहीं लगे। अंग्रेजों ने सौदागर मोहल्ले में जमकर कहर ढ़ाया। सरफराज के जानने वाले से लेकर उनका नाम लेने वालों को भी फांसी चढ़ा दिया। सरफराज के घर से चंद कदम दूर एक राजा का किला है। जिसे अंग्रेजों ने अपनी जेल बना रखी थी। अंग्रेजों को जब फांसी देने के लिए फांसी घर नहीं मिला तो उन्होंने जेल में लगे एक बड़े पाकड़ के पेड़ से सैकड़ों लोगों को फांसी पर लटका दिया। इस पेड़ पर करीब तीन सौ से अधिक लोगों को फांसी दी गयी थी।

दरख्शां ताजवर बताती हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस बगावत की सजा सरफराज अली को देश निकाला से मिली तो उनके परिवार और पड़ोसी भी बच न सके। सरफराज को पकड़ने में नाकाम अंग्रेजों ने शक की बुनियाद पर मोहल्ले के अधिकांश लोगों को फांसी की सजा सुना दी। उन्हें सरफराज के घर से कुछ दूरी पर स्थित जेल के एक पेड़ से लटका कर फांसी दे दी। वहीं उनके खानदानी कब्रिस्तान में दो ऐसी कब्र हैं जो इस सितम की गवाह है जिसे लोग गंजे शहीदां कहते है। यहां देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आवाज़ उठाने वालोें को दफ़न किया गया था। डॉ. दरख्शां ने बताया कि आज भी कुछ रिश्तेदार नेपाल के पोखर भिटवा में बसे हुए हैं। शहर-ए-गोरखपुर के सौदागार मोहल्ले के सरफराज अली की कुर्बानी को न सिर्फ हम भूल गए बल्कि इतिहास के अवराक में भी न के बराबर जगह मिली। सरफराज की बहादुरी और अंग्रेजों के सितम की पूरी कहानी सौदागार मोहल्ला, 150 साल पुराना पाकड़ का पेड़ और पुरानी जेल बयां कर रही है।

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